काला(भोजपुरी में
करिया) शब्द सुनते हीं जेहन में लगभग एक नकारात्मक छवि सहसा उभर आती है। घृणा का
भाव भी चेहरे पर यदा कदा अपनी उपस्थिति दर्ज करवा ही देता है। भारतीय पृष्ठभूमि
में काला धन, काला काम, काला जादू, काली कमाई ऐसे शब्द हर पाँच-दस कदम पर सुनायी पड़ ही जाते हैं। कुल मिलाकर
ऐसा लगता है कि चाहे जितनी भी अच्छी चीजें हैं उसके पीछे यदि ये काला शब्द चिपका
दिया जाए तो दुनिया में उससे बुरा कुछ है ही नहीं। लेकिन कुछ लोग ऐसे भी हैं जो इस
काले शब्द से एकतरफा मोहब्बत करते हैं। एकतरफा का मतलब नीचे की लाईनों में आपको
बखूबी समझ में आ जाएगा।
खैर बात उन दिनों की
है जब मैं इलाहाबाद इनभर्सिटी(यूनिवर्सिटी को बिहारी भाई प्यार से इनभर्सिटी कहते
हैं) में बीए (उल्टा पढ़ने की आदत जो पड़ गई है) की तालीम ले रहा था। वैसे भी
इलाहाबाद से हमको बहुते मोहब्बत है वो भी एकतरफा। एकतरफा इसलिए क्योंकि इलाहाबाद
को हमसे प्यार है कि नहीं, हमको अभी तक नहीं पता। हमारे गुर्गों द्वारा इस पर रिसर्च
चल रहा है, जैसे ही कोई रिजल्ट आता है, ब्लॉग में
नोटिस की तरह चिपका दिया जाएगा। खैर इनभर्सिटीया के सटले(बगल में) कटरा नामक एक स्थान है, जो किताब की दुकानों और
इस्टूडेंटों(स्टूडेंट) के रेलमपेल के लिए परसिद्ध है। बहरहाल जीवन का असली मजा त हम इलाहाबादे में लूटे हैं न, वो भी अकेले नहीं चार ठो
लौंडे अउर रहें साथे में। यानि हमको लेकर कुल पाँच हुए न। उसमें से एक थे(अभी
गुजरे नहीं हैं, धरती पर ही विराजमान हैं) रामजी गुप्ता। अपने आप को
प्यार से गुप्ता जी कहलवाना ज्यादा पसंद करते थे। छोटे कद के सिर पर घुंघराले बाल
धारण किये गोरे चिट्टे गुप्ता जी अमिताभ कट फुलपैंट के बड़े शौकीन रहें। चाल में
राजपाल यादव के समकक्ष। नाक और कान के बीच पुल का काम करने वाला मोटे लेंस का
चश्मा उनके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग था। चश्में का मुख्य काम था लड़कियों को
ताडना(निहारना)। रंगीन मिजाजी में सबके बाप गुप्ता जी अपने को सलमान खान से कम
नहीं समझते। कटरा में चाय पीते हुए चश्में के भीतर से बालिकाओं को ताड़ना और चाय
के गिलास में हीं लार टपकाना उनकी पहचान बन गया था। ये तो रहा गुप्ता जी का इमेज।
अब बचे चार लोग इनक्लुडिंग मी। तो साहब हम भी कलर में गुप्ता जी की तरह गोरे हीं
हैं। बस कलर में हीं, अउर कुछ मत सोचिएगा।
अब रही बात बचे खुचे
तीन लोगों की। त ई तीनों का नाम था क्रमशः- लल्लन, नवल और कमाल। रंगत में तीनों तिल के समान काले।
कमाल और गुप्ता जी त एके गाँव के लंगोटिया यार थे। खैर भगवान ने इलाहाबाद में ही इन तीनों को भविष्य की
लुगाई(गर्लफ्रेंड) गिफ्ट कर दिया था, वो भी एकदम कनटास(खूबसूरत)। और ये तीनों भी गृहस्थ आश्रम
का आनंद लेने में चूक करने वालों में से नहीं थे।
सितंबर महीने की बात
है। एक दिन कॉलेज से लौटने के बाद चौराहे पर खड़े होकर हम पाँचों चाय की चुस्की ले
ही रहे थे कि अचानक कहीं से लल्लन की गर्लफ्रेंड प्रकट हो गई। फिर क्या था लल्लन
भी मैडम के साथ निकल लिए और पहुँच गए कंपनी बाग(चंद्रशेखर आज़ाद पार्क) गृहस्थ
आश्रम के प्लान के तहत। कसम से पहली बार किसी दोस्त ने गुप्ता जी को धोखा दिया था।
ये वारदात उनको बड़ी नागवार गुजरी। गर्लफ्रेंड विहीन जो थे गुप्ता जी। अब करें तो
करें क्या, मन मार कर रह गए बेचारे।
चार दिन भी नहीं बीता
कि अचानक गुप्ता जी ने सिनेमा दिखाने का मस्त प्रोग्राम बनाया। फिर क्या था भेजा
गया नवल को टिकट लाने के लिए 3 से 6 वाले शो की। करीब एक घंटे बाद नवल लौटा लेकिन पाँच नहीं छह
टिकट के साथ। छह टिकट देखते ही गुप्ता जी ने तड़ाक से एक सवाल दाग दिया कि अबे
नवलवा ई छह टिकट काहे लाए बे। हैं तो हम पाँच हीं, ई छठवाँ टिकट किसके लिए है। नवल ने बताया कि मेरी
गर्लफ्रेंड भी आ रही है। जैसे हीं ये लाईन गुप्ता जी के दोकानों(दोनो कान) में
पहुँची, कसम से मुरझा से गए बेचारे और खिसिया(गुस्सा) भी गए। कर दिया प्लान कैंसिल सिनेमा
देखने का। खैर, काफी मान मनौव्वल के बाद तैयार हुए सिनेमा देखने के लिए। लेकिन जैसे
ही सिनेमा हॉल पहुँचे और जब नवल की गर्लफ्रेंड को देखा तो उनके छाती पर साँप न लोट
गया जी। ऐसा लगा कि बेचारे मूर्च्छित होकर वहीं चटक जाएँगे। लेकिन फिर संभाल लिया
गया मौके की नज़ाकत को समझते हुए। इस तरह दुसरी बार किसी दोस्त ने विश्वासघात किया
था गुप्ता जी के साथ। इन वारदातों का दौर यदि यहिं रूक जाता तो भी ठीक था। लेकिन
क्या करें वारदातें कभी रूकती कहाँ हैं.......
14 फरवरी 2009 – यानि
वैलेंटाईन डे। भारतीय युवाओं का राष्ट्रीय पर्व। लेकिन ये दिन गुप्ता जी के लिए
अत्यंत दुखदायी। खैर.....इस राष्ट्रीय पर्व के अवसर पर हम पाँचों मित्र निकले
बकईती करने कमाल के साथ और रूख किया कंपनी बाग का। पहुँच तो गए कंपनी बाग जहाँ
पहले से कमाल की फ्यूचर लुगाई(गर्लफ्रेंड) विराजमान थी। ये दृश्य देखकर मेरे सखा
गुप्ता जी को कसम से हो न गया बुरा हाल। बेचारे तड़प उठे बिन पानी के मछली की तरह।
साँस होने न लगी ऊपर नीचे गुप्ता जी की। फिर क्या था बरबस ही उनके मुँह से फुट
पड़ा, फुट क्या पड़ा मतलब समझिए कि ये उनके दिल की आवाज थी
कि ...... काश ! मैं काला होता !!!!!!!!!!!!!!
काफी उपदेश झाड़ने के बाद मान तो गए, लेकिन
हाल बड़ा नाजुक था बेचारे का। तभी से उनकी दिली ख्वाहिश है कि “काश मैं काला होता”। अब वो एक ही बात सोंचते है कि
कोई ऐसा क्रीम होता जो चमड़ी का रंग काला कर देता। पूरा शरीर नहीं तो कम-से-कम
मुँह हीं काला कर दे।
अब कैसे समझाया जाए कि गुप्ता जी इस
बाज़ारवाद में कोई आपकी बात नहीं सुनेगा और न हीं आपके लिए कोई क्रीम पैदा करेगा
जो कम-से-कम आपका मुँह ही काला कर दे। बस एक ही रास्ता है – इंतज़ार का। तो गुप्ता
जी इंतज़ार किजिए... शायद आपके दिल की आह कोई क्रीम बनाने वाली कंपनी सुन ले और
बना दे आपके लिए काला करने वाला क्रीम। तब तक के लिए हमारी दुआएँ आपके साथ हैं। आप
सभी पाठक भी दुआ किजिएगा कि ऐसा कोई क्रीम बने जो गुप्ता जी के मुँह को काला कर
दे।
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